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हिर॑ण्यकेशो॒ रज॑सो विसा॒रेऽहि॒र्धुनि॒र्वात॑इव॒ ध्रजी॑मान्। शुचि॑भ्राजा उ॒षसो॒ नवे॑दा॒ यश॑स्वतीरप॒स्युवो॒ न स॒त्याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyakeśo rajaso visāre hir dhunir vāta iva dhrajīmān | śucibhrājā uṣaso navedā yaśasvatīr apasyuvo na satyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यऽकेशः। रज॑सः। वि॒ऽसा॒रे। अहिः॑। धुनिः॑। वातः॑ऽइव। ध्रजी॑मान्। शुचि॑ऽभ्राजाः। उ॒षसः॑। नवे॑दाः। यश॑स्वतीः। अ॒प॒स्युवः॑। न। स॒त्याः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:79» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ७९ वें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्युत् अग्नि कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कुमारि ब्रह्मचर्य्ययुक्त कन्या लोगो ! (रजसः) ऐश्वर्य्य के (विसारे) स्थिरता में (हिरण्यकेशः) हिरण्य सुवर्णवत् वा प्रकाशवत् न्याय के प्रचार करनेवाले (धुनिः) शत्रुओं को कंपानेवाले (अहिः) मेघ के समान (ध्रजीमान्) शीघ्र चलनेवाले (वातइव) वायु के तुल्य (उषसः) प्रातःकाल के समान (शुचिभ्राजाः) पवित्र विद्याविज्ञान से युक्त (नवेदाः) अविद्या का निषेध करनेवाली विद्यायुक्त (यशस्वतीः) उत्तम कीर्त्तियुक्त (अपस्युवः) प्रशस्त कर्म्म करनेवाली के (न) समान तुम (सत्याः) सत्य गुण, कर्म्म, स्वभाववाली हों ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो कन्या लोग चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य्यसेवन और जितेन्द्रिय होकर छः अङ्ग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष, उपाङ्ग अर्थात् मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त तथा आयुर्वेद अर्थात् वैद्यक विद्या आदि को पढ़ती हैं, वे सब संसारस्थ मनुष्य जाति की शोभा करनेवाली होती हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कथंभूतो विद्युदग्निरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे कुमारिका ब्रह्मचारिण्यो ! रजसो विसारे हिरण्यकेशो धुनिरहिरिव ध्रजीमान् वात इव उषस इव शुचिभ्राजा न वेदा यशस्वतीरपस्युवो नेव यूयं सत्या भवत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यकेशः) हिरण्यवत्तेजोवत्केशा न्यायप्रकाशा यस्य सः (रजसः) ऐश्वर्य्यस्य (विसारे) विशेषेण स्थिरत्वे (अहिः) मेघ इव (धुनिः) दुष्टानां कम्पकः (वातइव) वायुवत् (ध्रजीमान्) शीघ्रगतिः (शुचिभ्राजाः) शुचयः पवित्रा भ्राजाः प्रकाशा यासां ताः (उषसः) प्रभाता इव (नवेदाः) या अविद्यां न विन्दति ताः (यशस्वतीः) पुण्यकीर्त्तिमत्यः (अपस्युवः) आत्मनोऽपांसि कर्माणीच्छन्तः (न) इव (सत्याः) सत्सु गुणकर्मस्वभावेषु भवाः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। याः कन्या यावच्चतुर्विंशतिवर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रियतया साङ्गोपाङ्गा वेदविद्या अधीयते ताः मनुष्यजातिभूषिका भवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, ईश्वर व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे याच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या कन्या चोवीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पालन करून जितेंद्रिय बनतात व सहा अंगे - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त छंद व ज्योतिष तसेच उपांगे मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य व वेदान्त आणि आयुर्वेद अर्थात वैद्यक विद्या इत्यादी शिकतात त्या सर्व जगातील मानव जातीचे भूषण ठरतात. ॥ १ ॥